लॉकडाउन के बाद टूटी ग्रामीण अर्थव्यवस्था, लोगों के सामने खाने का संकट
कहते हैं कि मौत कभी बता कर नहीं आती. लेकिन उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के रहने वाले राजकुमार के साथ ऐसा नहीं हुआ. उसके दरवाजे पर तो मौत लगातार दस्तक दे रही थी. चार दिन से पेट में कुछ गया जो नहीं था. भूख से राजकुमार को आंखों के सामने मौत नजर आ रही थी. वो गुहार लगाता रहा लेकिन उसकी कमजोर आवाज कहीं तक नहीं पहुंची. न ही जिले के अफसर साहेबान तक और न ही लखनऊ-दिल्ली में बैठे सत्ता के हुक्मरान तक.
बांदा जिला देश के सबसे पिछड़े जिलों में शुमार होता है. यहीं के कुछबंधिया पुरवा गांव के रहने वाले राजकुमार ने कथित तौर पर भूख से दम तोड़ दिया. आखिर उसका कमजोर शरीर कब तक ये सब सह पाता. 38 साल के राजकुमार ने अपने आखिरी दिनों में खाट से लेटे-लेटे जो कहा, वो एक तरह से ‘मृत्यु पूर्व बयान’ जैसा ही है. राजकुमार के ही शब्द- ‘लॉकडाउन लगा हुआ है, न कहीं जा पा रहे हैं न कुछ कर पा रहे हैं, भूखे मर रहे हैं चार दिन से…’
राजकुमार ‘घुमंतू समुदाय’ से था. पड़ोस के गांवों में जाकर सिलबट्टों की धार तेज करने का काम कर किसी तरह राजकुमार अपने परिवार का गुजारा कर रहा था. लेकिन कोरोना महामारी को लेकर लगाए गए लॉकडाउन ने सबकुछ रोक दिया. इंसान बेशक घरों में बंद हो गए लेकिन भूख तो कहीं लॉक नहीं हो सकती. राजकुमार के परिवार में बूढ़ी मां, पत्नी, चार छोटे बच्चे हैं. उसकी बूढ़ी मां ने कहा, ‘कुछ दिन बाहर जाकर मांग कर कुछ लाती रही. लॉकडाउन की वजह से नहीं जा पाई. किसी दिन खाना मिला, किसी दिन नहीं मिला. बिना पैसे मेरा बेटा मर गया.’
राजकुमार की मौत ‘वेलफेयर स्टेट’ पर एक बड़ा सवालिया निशान है. ये मौत लॉकडाउन में जरूरतमंदों तक खाने जैसी बुनियादी चीजें पहुंचाने के शासन-प्रशासन के दावों को भी कटघरे में खड़ा करती है. राजकुमार ने मौत से पहले जो कुछ कहा, उसके सामने अधिकारी जितनी भी दलीलें दें, बौनी नजर आती हैं.
बांदा के डीएम अमित बंसल राजकुमार की मौत भूख से होने को साफ नकारते हैं. उनका कहना कि ‘राजकुमार की मौत लंबे समय से बीमार होने की वजह से हुई है न कि भूख से.’
गांव में पहुंची स्थानीय सरकारी अस्पताल की टीम के सदस्य डॉ एम सी पाल ने कहा कि ‘भूख से मौत जैसे आरोप पर तो वो कुछ नहीं कह सकते. लेकिन स्वास्थ्य से जुड़ी जो कुछ दिक्कत है, उसे हमारी टीम की ओर से देखा जाएगा और आगे भी चेकअप कराया जाएगा.’