अंग्रेजों के विरोध में लिख डाला राष्ट्रगीत, ‘वन्दे मातरम’

RJ NEWS – भारत की प्रमुख भाषाओं में शुमार बांग्ला भाषा के प्रमुख साहित्यकार और राष्ट्रीय गीत ‘वंदे मातरम्’ के रचियता बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय की आज 128वीं पुण्यतिथि है। उन्होंने अपनी लेखन कला से न सिर्फ़ बंगाल के समाज, बल्कि पूरे देश को प्रभावित किया। ऐसे कवि, लेखक, उपन्यासकार और देशभक्त बंकिम चन्द्र का देहांत 8 अप्रैल, 1894 को हुआ। इस मौके पर जानिए उनके जीवन के बारे में कुछ अनसुनी बातें…
बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय का जीवन परिचय
‘वंदे मातरम्’ के रचियता बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय का जन्म 27 जून, 1838 ई. को बंगाल के 24 परगना ज़िले के कांठल पाड़ा नामक गांव में हुआ था। उनका जन्म बंगाल के एक शिक्षित और सम्पन्न ब्राह्मण परिवार में हुआ था, पिता बंगाल के मिदनापुर में उप कलेक्टर थे इस कारण उनकी प्रारम्भिक शिक्षा भी वहीं के सरकारी स्कूल में सम्पन्न हुई थी। बंकिम जी की पढ़ने-लिखने में शुरू से ही काफी रुचि थी। उन्होंने अपने स्कूल के दिनों में पहली कविता लिखी थी। उनकी संस्कृत में अधिक रूचि थी परंतु अंग्रेजी में उतने ही कमजोर थे।

उनके स्कूली दिनों का एक किस्सा जिसमें अंग्रेजी भाषा को लेकर अध्यापक ने उनकी पिटाई कर दी, बस इसी कारण से अंग्रेजी भाषा से उन्हें डर लगने लगा था। प्रारंभिक शिक्षा पूरी होने के बाद उन्होंने आगे के अध्ययन के लिए हुगली के मोहसीन कॉलेज में दाखिला लिया। बंकिम बहुत मेहनती छात्र था और उनकी रूचि संस्कृत साहित्य में अधिक थी। बाद वर्ष 1856 में उन्होंने कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया।
देश प्रेम व मातृभाषा के प्रति लगाव
बंकिमचन्द्र उस समय के कवि और उपन्याकार थे जब बांग्ला साहित्य का विकास बहुत ही कम था, न कोई आदर्श था और न ही रूप या सीमा का कोई विचार। अपनी पढ़ाई पूरी कर लेने के बाद परिवार की आजीविका चलाने के लिए उन्होंने सरकारी सेवा की और 1891 में सेवानिवृत्त हुए।
उनमें देश के प्रति राष्ट्रीय प्रेम शुरूआत से ही था, जो उनकी रचनाओं में साफ झलकता है। उन्हें अपनी मातृभाषा बांग्ला से बहुत लगाव था। युवावस्था में उन्होंने अपने एक मित्र का अंग्रेज़ी में लिखा हुआ पत्र बिना पढ़े ही इस टिप्पणी के साथ लौटा दिया था कि, ‘अंग्रेज़ी न तो तुम्हारी मातृभाषा है और न ही मेरी’। सरकारी सेवा में रहते हुए भी उन्होंने कभी अंग्रेजी भाषा का अपनी कमजोर नहीं बनने दिया।

साहित्य सेवा की योगदान
वे बंगला के महान कवि और उपन्यासकार थे। उनकी लेखनी से बंगला साहित्य तो समृद्ध हुआ नहीं था, उस समय गद्य—पद्य या उपन्यास आदि रचनाएं कम ही लिखी जाती थीं। ऐसे में बंकिम बांग्ला साहित्य के पथ—प्रदर्शक बन गये। साथ ही हिन्दी को भी उभरने में सहयोग किया। उन्हें ऐतिहासिक उपन्यास लिखने में महारथ हासिल थी। उन्हें भारत के ‘एलेक्जेंडर ड्यूमा’ माने जाता है। उनकी प्रथम प्रकाशित रचना ‘राजमोहन्स वाइफ’ थी। इसकी रचना अंग्रेजी में की गई थी।
27 वर्ष की उम्र में बंकिम चन्द्र की पहला बांग्ला उपन्यास ‘दुर्गेशनंदिनी’, जो मार्च 1865 में प्रकाशित हुआ था। इस ऐतिहासिक उपन्यास से ही साहित्य में उनकी धाक जम गई। उन्होंने 1872 में मासिक पत्रिका ‘बंग दर्शन’ का भी प्रकाशन किया। ‘बंग दर्शन’ ने ही कवि रबीन्द्रनाथ टैगोर को साहित्य के क्षेत्र में उभारने में मदद की। वे बंकिम को अपना गुरु मानते थे। उनका कहना था कि, ‘बंकिम बांग्ला लेखकों के गुरु और बांग्ला पाठकों के मित्र हैं’। 1874 में उन्होंने प्रसिद्ध देश भक्ति गीत ‘वन्दे मातरम्’ की रचना की, जिसे बाद में ‘आनन्द मठ’ नामक उपन्यास में शामिल किया गया। वन्दे मातरम् गीत को सबसे पहले 1896 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में गाया गया था।
बंकिम की अन्य रचनाएँ
‘दुर्गेश नंदिनी’ के बाद उनके रचनाएं प्रकाशित हुई। उनकी ‘कपालकुंडला’ (1866) प्रकाशित हुई जिससे उनकी सबसे अधिक रूमानी रचनाओं में से एक माना जाता है। बंगदर्शन में उन्होंने विषवृक्ष (1873) उपन्यास का क्रमिक रूप से प्रकाशन किया। कृष्णकांतेर विल में चटर्जी ने अंग्रेजी शासकों पर तीखा व्यंग्य किया है।
बंकिम जी का प्रसिद्ध उपन्यास “आनंदमठ” था, जो 1882 में प्रकाशित हुआ, जिससे प्रसिद्ध गीत ‘वंदे मातरम्’ लिया गया है। इसमें उत्तर बंगाल में 1773 ई. में हुए ईस्ट इंडिया के विरोध में संन्यासी विद्रोह का वर्णन किया गया है। यह किताब हिंदुओं और मुसलमानों के बीच एकता का आह्वान करती है। इस प्रसिद्ध गीत वंदे मातरम् को किसी और ने नहीं बल्कि रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा संगीतबद्ध किया गया था। इस पुस्तक में देशभक्ति की भावना है।
चटर्जी का अंतिम उपन्यास सीताराम (1886) है। इसमें मुस्लिम सत्ता के प्रति एक हिंदू शासक का विरोध दर्शाया गया है। उनके अन्य उपन्यासों में मृणालिनी, इंदिरा, राधारानी, कृष्णकांतेर दफ्तर, देवी चौधरानी और मोचीराम गौरेर जीवन चरित शामिल है। उनकी कविताएं ललिता ओ मानस नामक संग्रह में प्रकाशित हुई। उन्होंने धर्म, सामाजिक और समसामायिक मुद्दों पर आधारित कई निबंध भी लिखे।